क्या रावण की सेना युद्धक विमानों से लैस थी? - Indian History Blog I Vishva Guru Bharat

प्राचीन भारतीय संस्कृति के तीन अवयव रहे हैं। आर्य संस्कृति वानर संस्कृति और राक्षस संस्कृति। आर्य (देव) संस्कृति हिमालय से विध्य की तलहटी तक प्रसृत थी। वानर का केन्द्र तत्कालीन किष्किंधाा नगरी थी। आज के महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेशों के कुछ हिस्सों से मिला हुआ वह एक विकसित और सुसंस्कृत क्षेत्र था। वानर संस्कृति के मूल्यांकन की गरिमा इससे भी बढ़ जाती है कि आर्य (देव) संस्कृति के प्रतिमान स्वरूप राम को
(आत्मानं मानुषं रामं दशरथात्मजम्-युद्धकांड) अपनी सहायता की अपेक्षा के लिए वानरराज सुग्रीव से मैत्री करनी पड़ी।
    राक्षस संस्कृति, उपर्युक्त दोनों संस्कृतियों से बढ़-चढ़कर थी। कदाचित आर्य संस्कृति के उद्भव से पहले ही, यह भारत में ही नहीं, बल्कि लंका-सहित, सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका तक फैली थी। इन सभी क्षेत्रों में रहने वाले लोग राक्षस संस्कृति’ के अनुयायी थे। इस संस्कृति के उपनिवेश भारत के दंडकारण्य और नासिक में भी थे। रावण इस संस्कृति का उन्नायक एवं इन सभी क्षेत्रों का अधिपति था। दानवी एवं आसुरी संस्कृतियां राक्षस संस्कृति की पर्यायवाची थीं रावण के दबदबे से उन दिनों आर्य संस्कृति आकांत थी।
    आर्य और राक्षस संस्कृति राक्षस संस्कृति के उद्भव की कथा वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड एवं अन्यान्य पुराणों में उल्लिखित है। कहा जाता है कि प्रजापति ने जब क्षुधार्त मानवों की सृष्टि की तब वे सभी अपने स्वामी को ही खाने दौड़ पड़े। बेचारे प्रजापति व्यग्र हुए किंतु, उनमें से जिन्होंने कहा; ‘‘ऐसा मत करो, इनकी रक्षा करो’’, वे राक्षस कहलाये। जिन्होंने कहा, ‘‘इन्हें पकड़ो खाओ’’ वे यक्ष कहलाये-
    मैवं भोः रक्ष्यातामेष यैरूक्तंराक्षसास्तु ते।
    ऊचुः खादामेद्वत्यन्ये येते यक्षस्तु यक्षणात्।।
    (विष्णु-पुराण)
    इस तरह ‘वयं यक्षामः’ के आधार पर आर्य संस्कृति और ‘वयं रक्षामः’ के उच्चारण से राक्षस संस्कृति का नामकरण हुआ। यक्ष संस्कृति व्युत्पलिभ्य अर्थ है- यक्षते पूज्यते इति यक्षः। यह पूजा और भोग पर आधारित है। राक्षस संस्कृति में दाक्षिणात्यों की सोम (चंद्रवंशीय) और उत्तराखंड की रवि (सूर्यवंश्ीाय संस्कृति का मधुयोग है। राक्षस शब्द में दो व्यंजनाएं हैं- रा$क्षस। ‘क्षस्’ सोमवती या यक्षी संस्कृति का अंश विशेष है और ‘रा’ में रवि संस्कृति की प्रोज्ज्वलता है।

दो संस्कृतियों में एकता

    परंपरागत रूप से भी, इन दोनों संस्कृतियों में हार्दिक संबंध रहा है। इनकी भिन्नता मूल में नहीं, अपितु विचार-विकास के कारण रही है। आर्य-कुलोद्-भूत कश्यप की दनु, दिति और अदिति नाम की तीन पत्नियां थीं। दनु से दनुज, दिति से दैत्य, अदिति से आदित्य (देव) उद्भूत हुए। रावण के पितामह पुलस्त्य आर्यकुल के थे। पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा ने राक्षस-कन्या कैकसी और कंचकेशी से विवाह किया। कैकसी के रावण, कुंभकर्ण एवं शूर्पणखा तथा कंचकेशी से विभीषण और त्रिजटा नाम की संतानें उत्पन्न हुई। विश्रवा के प्रथम पुत्र विश्रवण-कुबेर थे। कुबेर यक्ष संस्कृति के नियामक के रूप में लंका के अधिपति बने। तात्पर्य यह है कि आर्य संस्कृति और राक्षस संस्कृति का ही आसुरी संस्कृति नामकरण करके कोसा गया है। असुर शब्द ‘असु’ धातु से व्युत्पन्न है। कौत्सुक्य निघंटु में ‘असुर’ मेक्ष का घोतक है। ‘अवेस्ता’ में यही ‘अहुर’ है। ‘अस’ का अर्थ प्राण्सा है, जो उत्क्षेप और अवक्षेप दोनों का बोध कराता है। प्राणियों को प्राण शक्ति से अनुप्राणित करने वाली प्रत्येक औषध को आसुरी कहा गया है।

    संपादक रावण

उन दिनों वेद की ऋचाएं श्रुत-रूप में ही विद्यमान थीं। रावण ने उनका नये सिरे से संपादन किया और उन पर व्याख्याएं लिखीं। उन व्याख्याओं के अंतर्गत उसने लोकाचार को भी सन्निहित किया। इस आधार पर अपने को श्रेष्ठ समझने वाली आर्य संस्कृति ने रावण द्वारा प्रतिपादित व्यावहारिक आचार-पऋति के अनुगामियों को अपने खेमे से बहिष्कृत मानकर, उन्हें अनार्य (व्रात्य) की संज्ञा दी, किंतु आर्य संस्कृति से वहिष्कृत लोगों में केवल राक्षस नहीं थे, अपितु वानर और ऋक्ष भी थे। आर्य संस्कृति के पाणिनि पुरूष राम ने वानर और ऋक्ष जातियों से मित्रता स्थापित करकेे, राक्षस संस्कृ    ति से टक्कर ली। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य और राक्षस संस्कृति के बीच कोई जातिगत विद्वेष नहीं था, विचारगत वैषम्य अवश्य था। राक्षसांे के जीवन व्यवहार को ‘वामाचार’ की संज्ञा देकर उन्हें हीन, अपावन समझा जाने लगा। रावण लिंग पूजक के रूप में ‘रूद्र’ का उपासक था। उस समय सृष्टि विकास की प्रकृतिया आरंभावस्था में थी। प्रभूत मात्रा में प्रजनन अपेक्षित था। इसलिए राक्षस-संस्कृति का संरक्षण कर्ता रावण जहां भी जाता थ, अपने एक हाथ में सुवणर््एा निर्मित एक लिंग प्रतिमा लिये रहता था! रूद्र की प्रतीक उस लिंग की वह उपासना करता था। इस उपासना की तात्तिवक व्याख्या ‘छांदोग्य’ और ‘वृहदारण्यक’ में एक रूपक के माध्यम से स्पष्ट की गयी है ‘‘ स्त्री ही अग्नि है, शिश्न ही समाधि है, योनि ज्वाला है, आकर्षण धूप है, प्रवेश अंगार है, आनंद चिनगारी है, वीर्यपात ही आहुति है, इस आहुति से गर्भ उद्भूत होता है।’’
    भौतिक प्राणियों में जीभ और योनि की स्थिर स्थिति नहीं होती। इनकी चंचलता से सभी व्यथित रहते हैं। इनका निर्बाध प्रवेश जीवन को अधेमुख कर देता है। साधना के द्वारा सर्वप्रथम इन्हें परितोष देने के बाद ही, जीवन के उर्ध्वगामी होने की संभावना होती है। अतिशय भोग से जीभी और योनि को परितृप्त करके शिथिल बना देने की प्रकृतिया ही ‘वामाचार’ है। इस स्वदेश के बौद्धों ने अपनाया, विदेशा की समुन्नत संस्कृतियों ने ग्रहण किया। आज भी इस दार्शनिक साधना की अपनी विशेष अक्षुण्ण है।
    ‘कृष्णयजुर्वेद’ में संग्रहीत रावण की अधिकांश वेदोक्तियां आज आर्यो को मान्य हैं। उसको आराध्यदेव रूद्र की शिव के रूप में उपासना करने की पद्धति वे नहीं छोड़ते। राक्षस (दानव) वंश में पैदा होने वाले विश्वकर्मा को देवत्व की उपाधि से विभूषित करनें में वे नहीं चूकते। उसके भाई कुबेर (विश्रवण) को लंका का राज देकर उसे दिक्पाल बनाने की साजिश से नहीं चूकतें। किंतु राक्षस संस्कृति और उसके नियामक रावण के प्रति सहय दृष्टि रखने सेे ही न जाने क्यों चौंक उठते है?

    राक्षस सुंदरियों का विहार

रामायणकालीन राक्षस संस्कृति के रेख-रंग की कुछ अनुपम झांकियां प्रस्तुत की जाती है। शायद इससे उस संस्कृति के गौरव-स्तर का कुछ अनुभावन हो सके। कला और विनोद किसी भी संस्कृति का भावात्मक बोध है। इससे जीवन के प्रति उस संस्कृति के सात्विक दृष्टिकोण का पता चलता है। कला के प्रति रूझान से मानसिक रेचन होता है। लंका-नगरी का निर्मितियां कला की श्रेष्ठ निर्देशिका रही हैं। यद्यपि रात में यहां मधुमयी ज्योत्सना बगर जाती, तथापि प्रत्येक मंदिर असंख्य दीपों के प्रकाश में खिल उठता है। राक्षसेंद्र का अंतः पुर हेम एवं मणि-खचित कलात्मक चित्रों से संपूरित था। अंतः पुर की रमणियां बहुविध वेशों में सुशोभित, रंग-बिरंगे वसनों एवं सुवासित मालाओं से सुसज्जित लंकाधिपति को प्रेम-प्रतिदान देने में जुटी रहतीं।
लंका की अद्भुत निर्माण कला
लंका नगरी की निर्माण कला तो अद्भुत थी ही, उसकी रक्षा के लिए लंगा दुर्ग की रचना भी अतिशय प्रशंसनीय थी। पुरी के चतुर्दिक िचार प्रशस्त द्वार थे। सशक्त अर्गलाओं सहित, उनमें अभेद्य किवाड़ लगे हुए थें। उनमें ऐसे प्रबल यंत्र संयत्रित थे, जो शत्रुओं के आक्रमण को विफल कर देते थे। नीलमणियों से जटित पुरी के चतुर्दिक परकोटे बने हुए थे। परकोटों के चारों और जलभरी अभेद्यखाईयां थी। उन खाइयों पर अनेकानेक पुलों का निर्माण किया गया था। चारों दरवाजों पर चार महारथी चतुरंगिणी राक्षस सेनाओं के साथ नियुक्त रहते।
    मल्लयुद्ध-विद्या में पांरगत होने के लिए स्थान-स्थान पर अखाड़े बने हुए थे। राक्षस किशोर नित्य उन अखाड़ों में लड़ा करते थे। कहा जाता है कि राक्षसेंद्र अन्य राजाओं की तरह घूत-क्रीड़ा का व्यसनी नहीं था, बल्कि वह बुद्धि-विलास के लिए शतरंज खेला करता था। 

    युद्धक विमानोें से लैस सेना

राक्षस संस्कृति युद्ध-चित्रांकन (वॉर फोटोग्र्राफी) में भी बढी-चढ़ी थी। रावण के पास विद्युज्जिह नाम का एक राक्षस कलाकार था। सभी उसकी कला के कायल थे। रावण ने उस कलाकार से राम के मृतक रूप के एक बनावटी सिर के निर्माण का आग्रह किया जाकि उसे दिखाकर वह सीता को अपनी ओर आकर्षित कर सके। विद्युज्जिह ‘मृतक राम’ के सिर की सटीरक अनुकृति बनाकर रावण के साथ अशोक वाटिका में गया। सीता, उस बनावटी सिर को राम का वास्तविक सिर समझकर विलाप करने लगी। उनके नयन, मुख, वर्ण, केश आदि सभी अवयवों को राम जैसा ही मान बैठीं। सीता विदुषी थीं, वयस्कां थीं, फिर भी वे वास्तविकता न पहचान सकीं। इसका तात्पर्य यह है कि राक्षस संस्कृति में रूप-निर्माण की कला पूर्ण विकसित थी। इसकी गरिमा का आंकलन इस तर्क-बल पर और बढ़ जाता है कि जिस राक्षस कलाकार ने राम के बनावटी सिर का निर्माण किया था, निश्चय ही, उसने राम की आकृति बडी दूर से उतारी होगी। कारण, राम अपने ऋक्ष-वानर सैनिकों से सदा घिरे रहते थे। उनके समीप किसी शत्रु का पहुंचना सरल नहीं था। इतनी दुरी से ऐसी सही आकृति खींच लेने की घटना राक्षस संस्कृति की युद्ध चित्रांकन कला में चार चांद जड़ देती है।
    राक्षसों का युद्ध-विज्ञान भी बढ़-चढ़कर था। राम की अमित सैन्य-शक्ति से जब रावण को कुछ परेशानी महसूस हुई तब बज्रदंष्ट्र नामक उसके एक महारथी वरिष्ठ मंत्री ने उसे यह कह आश्वस्त किया ‘महाबली! राम की सेना के समान ही, मैं एक सहस्त्र राक्षस सेना का निर्माण करके उसे राम की सेना में घुसा दुंगा,’ यह कहकर कि इसे भरत ने भेजा है। वह राक्षस सेना राम की सेना में मिलकी उसके रहस्यों को जान ले। तब तक हम लोग आकाश-मार्ग से, ध्रती पर अपनी उस बनावटी सेना की सहायता से राम की विशालवाहिनी का विनाश कर देंगे।’
    इससे निष्कर्ष निकलता है कि राक्षस मनचाहा रूप धारणप कर सकते थे। ब्रजद्रंष्ट्र ने आकाश में ‘गणशः’ स्थित होने की बात भी कही है। इसका अर्थ यह है कि राक्षस सेना आकाश में समूहगत रूककर युद्ध अभियान करने में सक्षम रही। युद्ध विज्ञान की ऐसी विद्या आज भी आविष्कृत नहीं हो सकती है।
    राक्षस ‘पाणिलाघव’ युद्ध-विज्ञान में भी कुशल थे। अपने सारथि के मारे जाने पर इंद्रजित ने स्वयं रथ और बाण साथ-साथ चलाने का कौशल दिखाकर राम के सेनापतियों को विस्मय डाल दिया। रावण का पुष्पक विमात तात्कालिक कला कौशल का सवोत्कृष्ट नमूना माना जाता था।

    वेदपाठी रावण

    आर्य संस्कृति की तरह, राक्षस संस्कृति में भी यम-नियम एवं जीवन के प्रति उदात्त दृष्टिकोण विद्यमान थे। लोगों की सामान्य धारणा कितनी कलुषित बना दी गयी है, कि राक्षस का अर्थ ही आततायी, क्रूर, भ्रष्ट और अविवेकी। विभीषण सीता को छुड़ाने के लिए रावण के महल में प्रातः काल पहंचुते ही देखता है कि यथाविधि पूजा करने के बाद, वेदपाठी ब्राह्मणों को संतुष्ट करके रावण उनसे आशीर्वाद ग्रहण कर रहा है।
    लंका में प्रवेश करते ही, हनुमान ने कतिपय राक्षसों को वेदपाठ करते देखा। उनके कानों में वेदो के सस्वर उच्चारण की ध्वनि गूंज उठी थी।
    उत्तरकांड में उल्लिखित प्रसंग के अनुसार रावण ने निवातकवचों के साथ अग्नि को साक्षी देकर मित्रता स्थापित की थी। इससे सिद्ध होता है कि राक्षस भी आर्यो की भांति अगिन के उपासक थे।

    सौंदर्यशाली रावण

    उदार-भाव की सार्वजनीनता सभी संस्कृतियों में समान रूप से व्याप्त है। नारी की सौंदर्यशीलता और पुरूष का सौंदर्य औदात्य किसी खास संस्कृति के भाग नहीं होते। लोगों में यह भ्रांत धारण परिव्याप्त है कि रावण ने अनेक सुंदरियों का शील-भंग करके बलपूर्वक उन्हें अपने अंतः पुर में रख छोड़ा था, उसके सम्मुख संदरियां कैसें अपने आंचल फैला सकती थी! रावण के अंतःपुर में कोई भी ऐसी रमणी नहीं थी जो विवाहिता न रही हो और बलपूर्वक हरण कर ली गयी हो। अंतःपुर की सभी रमणियां स्वयं आकर्षित होकर उसके रनिवास की शोभा बनी थीं।
    अंतःपुर की इन रमणियों से पृथक् निरे एकांत में पलंग पर सोयी एक रूप-संपन्न रमणी को हनुमान ने देखा। वह हीरे-मोतियों के आभूषणों से मंडित थी। उसकी अंगकांति से समग्र अंत‘पुर की शोभा विकीर्ण हो रही थी। वह सुवर्ण-सदृश गौरांगिनी थी। अंतःपुर की रमणियों की वह स्वामिनी थी। उसकी देहयष्टि, उसका रूप, यौवन, उसकी शरीर-कांति को देख कर हनुमान ने समझा स्यात् यही सीता है? किंतु वह सीता नहीं, रावण की पट्टमहिषी मंदोदरी थी। इससे लगता है कि आर्य और राक्षस स्त्रियों में कोई भेद नहीं था। रूप-सौंदर्य-समन्वित राक्षस कुलोद्भुत वह मंदोदरी उदात्त हृदयवाली भी थी। वह कहती है कि पतिव्रता नारियों के आंसू धरती पर यों ही विलीन नहीं होते।
    रावण क उदात्तता भी प्रशंसनीय है। अपनी अनुपस्थिति में मथुरा के राजा मधुदैत्य द्वारा अपनी चचेरी बहन कुंभीनसी के हरण किये जाने की घटना से रावण क्रोधितज होकर मधुदैत्य के वध के लिए विमान से मथुरा पहुंच जाता है, किंतु, वहां पहचुनें पर कंुभीनसी के आर्त विनय के सम्मुख द्रवित होकर उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देता है    ।
    आर्य संस्कृति में जैसी विकासमान स्थितियां एवं उदात्त भावनाएं हैं, राक्षस संस्क्ृति में भी वे उसी तरह से रही है। राक्षस संस्कृति को अनार्य संस्कृति कहकर अपने ही रक्त को दूषित कहना है। भारत की सामाजिक संस्कृति में जैसे अन्य संस्कृतियों का मेल-जोल है, राक्षस संस्कृति का भी स्थान निर्दिष्ट है।
    फिर, देव संस्कृति के संस्थापक राम को राक्षस संस्कृति से कोई दुराव नहीं था। राम ने लंका-विजय के उपरांत राक्षस संस्कृति में पालित विभीषण को ही लंका का अधिपति बनाया। राम को रावण के कुछ आंशिक आचरणों के प्रति आपत्ति रही थी, बस।

    मंडल लेखा कार्यालय, पूर्वोत्तर रेलवे, वाराणसी-2

Post a Comment

0 Comments