क्या तमिल वेद कहे जाने वाले ‘तिरूक्कुरल’ के प्रणेता महर्षि तिरूवल्लुवर ईसाई धर्म में सेन्ट थामस द्वारा दीक्षित किए गए थे? - विश्व गरू भारत Hindi Sahitya I Vishwa Guru Bharat I


    मद्रास के आर्चबिशप अरूलथा की इस सदी की सबसे बड़ी बौद्धिक धोखेधड़ी व षड्यन्त्र का पर्दाफाश।
    तमिल वेद कहलाए जाने वाले अत्यन्त लोकप्रिय गं्रथ ‘तिरूक्करल’ के प्रणेता महर्षि तिरूवल्लुवर को तमिल साहित्य-जगत में प्राचीन काल से वही स्थान दिया जाता है जो हिन्दु शासन व्यवस्था व आचार-संहिता के लिए मनु, याज्ञवल्कय, विदुर नीति अथवा कौटिल्य अर्थशास्त्र को दिया जाता हा है। दशकों से इस ग्रंथ के वे संस्करण भी उपलब्ध हैं जिनमें मूल तमिल के साथ ही इसके अंग्रेजी और हिन्दी के अनुवाद भी दिए गए हैं। यहां तक कि तमिलनाडु सरकार अपना पंचाग तिरूवल्लुवर के जन्मदि से मानती है जिसके अनुसार उनकी जन्मतिथि ईसामसीह से एक शताब्दी पूर्व की कही जाती है।
    पर क्या हमें विश्वास होगा कि मद्रास के आर्चबिशप अरूलप्पा ने एक अभूतपूर्व धोखाधड़ी के साथ एक ऐसा षडयंत्र 1975 और 1980 के बीच में रचा जिसके द्वारा निर्बोध हिंदुओं के सामने निर्बोध हिन्दुओं के सामने यह दुष्प्रचारित किया गया कि तिरूवल्लुवर वस्तुतः एक ईसाई थे, हिन्दु नहीं! उन्हें सेन्ट थापस ने ईसाई धर्म में दीक्षित ही नहीं, बल्कि उनका बपतिस्मा भी दिया था।
    यह कुचक्र आर्यबिशप अरूलप्पा ने गणेश अययर नाम के व्यक्ति के साथ मिलकर रचा था जिसे उन्होंने आचार्य पाल के नाम से विद्वानों व जनता के सामने परिचित कराया था इस षड्यंत्र का पर्दाफाश उच्च न्यायालय के निर्णय द्वारा हुआ जब एक सुनियोजित साजिश सामने भाई कि धर्मान्तरण के मन्तव्य से चर्च ने अपार धन भी व्यय किया था।
    आर्य बिशन अरूलप्पा ने एम0 देवनायकम नामक व्यक्ति से मिलकर तमिल में ‘पेरिंका बिलक्कु’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसमें यह सिद्ध करने की कोशिश की गई थी कि तिरूवल्लुवर एक ईसाई आस्थावान थे। इस संयुक्त लेखन में इन्होंने अपने जीवन का यह मिशन जैसा बना लिया था कि अध्यात्म, नीति, शासन व्यवस्था और सामाजिक आचार-संहिता के रचयिता तिरूवल्लुवर ईसाई थे और सेन्ट थामस जो भारत आए थे उन्होंने स्वयं उनकों दीक्षित किया था। यदि यह प्रमाण सहित सिद्ध किया जा सकता था कि तिरूवल्लुवर ईसाई थे तो हिन्दुओं को सहज ही धर्मान्तरित किया जा सकता था क्योंकि उनके नाम के सम्मोहन तमिल सांस्कृतिक जगत में पहले ही था।
    आर्य बिशप के लिए विश्वभर में निजी ख्याति और आर्थिक अनुदान एक पुरस्कार के रूप में सामने रखे थे। गणेश अययर या आचार्य पाल ने इस साजिश को एक षड्यंत्र की रूपरेखा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। 1975 से 1980 के बीच गणेश अययर का आर्य बिशप ने रु 13 5 लाख के अलावा एक मोटरगाड़ी भी दी थी। आज से 25-30 वर्ष पहलेयह राशि कितनी बड़ी महत्वपूर्ण हो सकती थी इसका आज भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है। प्रलोभन स्वयं चेन्नई के विद्वानों में चर्चा का विषय बन रहा था।
    यह साजिश इतने सुनियोजित रूपसे कार्यान्वित की गई थी कि आर्य बिशप अरूलप्पा गणेश अययर 1977 में वेरिकर भी अपनी इस कार्य योजना से पाप को अवगत कराने पहुंच गए। साथ ही दोनों व्यक्ति जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और अमेरिका भी गए थे। वे छठे पो पाल से मिले थें अपने अभिलेखों व झूटे पुराने लगने वाले जाली साक्ष्यों के माध्यम से अपनी खोज के परिणामों व उनके द्वारा धर्माचरण की सम्भावना पर भी विचार-विर्मश किया गया था।
    इस बीच अप्रत्याशित रूप से दो घटनाएं अंद ही अंदर इस षड्यंत्र की पोल खोल रही थी। चर्च के ही कुछ लोग को आर्च बिशप की वेटिकन व तत्कालीन पोप से सीधी नजदीकी उन्हें क्षुब्धकर रही थी। इसके अलावा सेन्ट थामस क्या कमी भारत आये भी थे? - इस पर स्वयं वेल्किन ने 1952 में अधिकारिक रूप से संशय प्रकट किया था। वे सन् 52 ‘थामन एरा’ (सी0 ई0) में भारतीय तट क्रान्गानोर पर उतरे थे - यह झूठ है। वेटिकन का यह सन्देश 13 नवम्बर, 1952 में देश के ईसाई मिशनरियों को भेजा गया था जब सत्त थामस की 19वीं शताब्दी समारोह के आयोजन की तैयारी मद्रास के सेन्ट थामस माउन्ट में 21/11/52 से मनाई जाने वाली थी।
    जाली दस्तावेजों, पाण्डुलिपियों, साक्ष्यों एवं अभिलेखों को गढ़ने की साजिश बहुत गंभीर थी क्योंकि पुरातत्वविदों या ऐतिहासिक संग्रहालयों के क्यूरेटरों का सहयोग लिया गया था। ताड़ के पुराने पत्तों या पंखिवा खजूर या पामीरा’ के पत्तों को लम्बाई में काटघर उन पर कत्थई कागजों को चिपकाकर, धुंवा देकर ऐसा दिखाया गया था कि वे स्क्रोल (कुण्डली जैसी पत्रावली या लतापत्रक) बहुत प्राचीन है। साथ ही मूर्जपत्र पेड़ों की छाल या पुराने लगने वाले पत्रों या पशुओं की चिकनी खाल पर घसीट कर लिखे ‘स्क्राल’ द्वारा विशेष कैमरा से उनके चित्रों को उभारा गया था। अब वे ‘पाप फ्रोड’ अन्तर्राष्ट्रिय प्रचार के लिए पुरातत्वविदों को भ्रमित करने के लिए तैयार थे।
    भारत लौटने पर आर्य बिशन ने जैसा सोचा था वह नहीं हुआ। गणेश अययर अपपा आचार्य पाल से अन्दर ही अन्दर सश अथवा धन की प्रतिद्वद्विता के कारण मनमुटाव पनप रहा था। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि आर्य बिशन अरूलप्पा को गणेश अययर के विरूद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करानी पड़ी, पुलिस ने गणेश अययर के आवास पर छापा मारा और पाया कि जाली साक्ष्यों को कैसे अभिलेखों में रूपांतरित किया गया था जिन्हें प्रचार के लिए प्रयुक्त किया गया था। अभिलेखों को बनवाने के सभी साक्ष्य उनके स्टूडियों में पाए गए। यहां तक कि पुरातत्व विभाग की जाली रबर की मोहरें व प्रसिद्ध संग्रहालयों की सत्यापित करने वाली अवैध सीलें भी बरामद हुई, वे लेखा-खाते भी मिले जिसमें गणेश अययर ने समय समय पर आर्य बिशप से खर्च के नाम पर धनराशि की पावती दी थी। जब गणेश अययर की पृष्ठभूमि की जांच की गई तब वह प्रथम दृष्टया अपराधी, नीच व गुंडा, प्रवृत्ति का दुर्जन- स्काउन्ड्रल एण्ड स्कालावेग- पाया गया। उसे 29 अप्रैल 1980 को गिरफतार कर लिया गया था। मजे की बात यह है आर्य बिशप ने स्वयं उसके विरूद्ध साक्ष्य जुटा कर गवाही दी।
    6 फरवरी 1986 को मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने अपना निर्णय दिया गैर विशेष रूप से यह टिप्पणी भी की यह विस्मय की बात है कि आर्य बिशप अरूलप्पा और फादर मरियादास एक समय आचार्य पाल के प्रति वयों दरियादिल थे और उससे पूर्णरूप से अभिभूत थे। उन्हें 10 माह के कारावास की सजा हुई जिसमें 5 महीने का सश्रम कठोर कारावास था।
    जब यह आपराधिक मामला न्यायालय में चल ही रही था उसी समय आर्य बिशप द्वारा मद्रास हाई कोर्ट में एक अन्य समझौते व सुलह की याचिका दायर की गई। इस क्रिमिनल प्रकरण के तुरंत बाद ‘काम्प्रोमाइज डिक्री’ का प्रकरण लिया गया और उसकी कारावास अवणि घटाक दो महीने की कर दी गई तथा क्योंकि पुलिस हिरासत मंे 1980 में ही 59 दिन बीत चुके थे इसलिए उन्हें छोड़ दिया गया। उनकी हिरासत 29 अप्रैल 1980 में शुरू हुई थी और उनकी जमानत की तिथि 27 जून, 1980 थी जिसने आधार पर इस गणना का उन्हें लाभ मिला था।
    आर्य बिशप से गणेश अययर (आचार्य पॉल) ने जो रु 13 5 लाख पाए थे, उसने एक आलीशाल बंगला खरीदा था साथ ही अपनी पत्नी व पुत्रियों के लिए स्वर्णाभूषण भी खरीदे थे। उसे यह सब आर्य बिशप को लौटाना पड़ा। यह ईसाई चर्चो का इस सदी का सबसे बड़ा हिन्दु-विरोधी षड्यंत्र कहा गया था।
    इस तरह ईर्सापूर्व प्रथम शताब्दी के ऋषि तिरूवल्लुवर को ईसाई घोषित करने का षड्यंत्र विफल हुआ जिसे इस शताब्दी का सबसे बड़ा धर्मान्तरण का असफल षड्यंत्र कहा जाता है।
    ईसामसीह के जन्म की बीस शताब्दियों बीतने के बाद भी इस प्रकार निर्लज्ज चर्च भारत में षड्यंत्र रच सकता है यह हमारे कथित खोजी अंग्रेजी पत्रकार आज भी देश के पाठकों को अवगत नहीं कराना चाहते हैं, यह एक राष्ट्रीय शर्म की बात है।
    पर यह कहानी यहीं नहीं समाप्त होती है। आर्य बिशप ने जिस दैवनायकम् के साथ संयुक्त रूप से वह ग्रंथ लिखा था जिसमें तिरूवल्लुवर को ईसाई घोषित किया था वह इस प्रकरण की असफलता के बाद भी चुप नहीं बैण। साक्ष्यों के दोबारा गढ़ने की रणनीति पुराने कुछ उदाहरणों के आधार पर फिर चलती रही। फादस एन्टोनियों गिल ने सेन्ट थामस के कंकाल को उनकी कब्र से खोज निकालने का दावा किया था। सन् 1521-22 में जब दो कब्रो की सुनाई में कुछ नहीं निकला तब 1523 में एक तीसरी कब्र को खोदा गया था जहां शुरू नहींे पाया गया पर एक सुबह कहा गया कि वहां हड्डियों, सिर और रीढ़ की हड्डी के अवशेष मिल गए है। कुछ उत्साही पादरियों ने इसे सेन्ट थामस के अवशेष कह डाला। ईश्वर शरण नामक लेखक ने खाली कब्र के 1500 साल पहले इस चमत्कार की धोखेधड़ी के बारे में अपने ग्रंथ ‘द मिच ऑफ सेन्ट थामस एण्ड ग्यालापुर शिक्षा टेम्पल’ मैं विस्तार से लिखा है। ईसा की चौथी शताब्दी के पहले आस की धरती पर किसी ईसाई मिशनरी ने पैर नहीं रखा था। वह भी पहले ईसाई शरणार्थी चौथी शताब्दी में सीरिया से लब आए ये पर्शिया को राजा शापुर द्वितीय ने उन्हें वहां से खदेड़ बाहर किया था। वास्को डॉ गाया जिसे भातर में अस्थागत के रूप में देश में स्थानीय राजाओं ने अपनाया था वह उन्हीं शासकों और हिन्दुओं का शत्रु बन गया था। डॉ आर0 अरूलप्पा आर्य बिशप के पद से सेवानिवृत्त हो गए पर उनके मित्र एम0 देवनायकम ने 1985-86 फिर एवं ग्रंथ प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था ‘‘ विविलियम, तिरूक्करल, शैव सिद्धान्तम् ओप्पु अययु’। इसको सरकारी संस्थान ‘दि इण्वसेशनल इंन्स्टीट्यूट ऑफ तमिल स्टडीज’, एड्यार ने प्रकाशित किया था। हिन्दू विरोधी द्रविड़ राजनीति-समर्थित मद्रास विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टरेट की उपाधेयी इसी ग्रंथ पर दे डाली। जो काम चर्च नगर सभा अन्ततः इस ग्रंथ ने एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया का यद्यपि तिरूवल्लुवर ईसाइमसीह से एक शताब्दी पहले जन्मे थे पर सेन्ट थामस के एक शिष्य ने उन्हे ईसाई धर्म में दीक्षित किया था। जब  वेटिकन ने सन् 1952 लगभग तीन दशक पहले ही कह दिया था कि सेन्ट थामस कभी भारत नहीं आए थे तब स्वयं भारतीय चर्च इस धोखेधड़ी में क्यों शामिल है, कोई नहीं जानता। ईसाई उत्साहियों की बौद्धिक धोखेधड़ी शायद इस देश में चलने कि नहीं। ईसाई शिक्षा का गरा प्रभाव मद्रास विश्वविद्यालय तक को अंधा बना सकता है।
    आज एक विक्षिप्त मेकाले का अनुयाई ही चाहे वह हमारा सहधर्मी ही क्यों न हो इस बात पर रंज मात्र भी विश्वास करेगी कि तिरूक्करल और शैवदर्शन बाईबिल पर आधारित है। यह ग्रंथ देश भर की ईसाई भिनरियों के साथ साथ मद्रास विश्वविद्यालय में भी समाहत किया गया है। हिन्दुओं की सहिष्णुता या जानबूझकर अपनाए अज्ञान के कारण इस देश में ही ऐसा संभव है। इस मीडिया निर्धारित दिम्गजित करने वाले सार्वजनिक विमर्श ने सहसा हमारे देश कौ वैचारिक अराजकता के अंधेरे में धकेल दिया है। इसके परिणाम भयावह हो सकते हैं।


Courtesy :
Shanti Dharmi Masik Patrika
    हरिकृष्ण निगम
    मुम्बई

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