ऋषि दयानन्द के आदर्श: दो नीति श्लोक

महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रंथो में यों तो शतशः नीति श्लोक उद्धत किये हैं किन्तु इनमें दो श्लोकों की अपनी विशिष्टता है। संस्कृति में नीति शिक्षा पर ग्रंथो का बाहूल्य है। मनुस्मृति के आंतरिक विदुर नीति (महाभारतार्न्गत) शुक्र नीति, कामन्दक नीतिसार, चाणक्य नीति आदि की गणना प्रमुख नीति ग्रंथो में होती है। ऋषि दयानन्द के जीवन और कर्तव्यांे के निर्धारण में महाराज भर्तृहरि के नीति (संख्या 58) के निम्न श्लोक का प्रमुख स्थान रहा है। इसे महाराज ने स्वयं सत्यार्थ प्रकाश की समाप्ति पर लिखे गये स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में उद्धृत किया है। प्रासंगिक श्लोक है-
    निन्दन्तु नीति संपुण यदि वा स्तुवन्तु।
    लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
    अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा।
    न्याययात् प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। नीति निपुण लोग हमारी निन्दा करें या स्तुति करें, लक्ष्मी आये या चली जाये। आज ही मृत्यु हो या युगों तक हमें जीवित रहें। वस्तुतः धैर्यवान पुरूष न्याय के मार्ग से कदापि विचलित नहीं होते।
    ऋषि ने इस श्लोक में कथित तीनों बातों को अपने जीवन में अक्षरंशः उतारा था। उनके काल में तथा उनके बाद भी उनके निन्दकों की कभी कमी नहीं रही। विरोधी पण्डितों ने उन्हें ईसाई प्रचारक, गुप्त ईसाई, धर्म विनाशक क्या क्या नहीं कहा? अनेक स्थानों पर विरोधियों ने उन पर ईंट पत्थर बरसाये, गाली गलौच किया। पूना में तो उनका अपमान करने की हद हो गई, जब दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने उनके सम्मान में निकाली शोभा यात्रा के समानान्तर गधे का जुलूस निकाला और उनके प्रति अवाच्य वर्षण किया। तथापि इन विपरीत स्थितियों में भी वे निर्विकार, अविचल तथा स्थिरमति रहे। गीता कथित स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षण उनमें पूर्णतया घटते है जब से सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जय-पराजय में निर्विकल्प निर्विकार रहते हैं।
    इसके विपरीत उनके जीवन काल में उनकी प्रशंसा भी कम नहीं हुई। राजा-प्रजा ने तो उनको सराहा ही किन्तु उनकी कीर्ति सुरभि सात समुद्र पार अमेरिका तक पहुंची जब थियोसोफी के संस्थापकों ने उनके विचार जाने और उनसे प्रत्यक्ष भेंट करने के लिए सात समुद्र पार कर भारत में आये। निष्पक्ष राज नेताओं और प्रशासकों ने उन्हे आदर दिया तथा सुधारक समुदाय (ब्रह्म नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुर केशवचन्द्र सेन) आदि ने उन्हें भारत का प्रमुख धर्म सुधारक तथा समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाला समझा।
    जहां तक धन सम्पत्ति का सम्बन्ध है, इनके प्रति उनमें किसी प्रकार का मोह या आसक्ति नहीं थी। अपने धनाढ्य पिता का सम्पन्न घर छोडकर वे वैराग्य पथ के पथिक बने थे। उन्होंने ऊरवी मढ के महन्त द्वारा प्रस्ताव्रत इस मठ के महन्त की गद्दी अस्वीकार कर दी। उदयपुर महाराणा द्वारा एकलिंग महादेव के मंदिर का अधिकार लेने के प्रलोभन को ठुकराते उन्हे एक क्षण भी नहीं लगा। जब काशी के पण्डितो ने इनसे आग्रह किया कि वे मूर्ति पूजा का खण्डन छोड़ दे तथा बदले में शंकराचार्य की पीठ के अधिष्ठाता बन जाये तो इस प्रस्ताव को ठुकराने में उन्होंने देर नहीं की। सांसारिक वैभव से कन्नी काटने वाला ऐसा इन्साफ तो फरिश्ता की कहला सकता है।
    जहां तक जीवन और मृत्यु का प्रश्न है, उनके प्राण हरण की अनेक चेष्टाएंें की गई, अनेक बार विष दिये गये उन पर तलवार से प्रहार का दुस्साहस (दुष्टव्य राव कर्णसिंह का प्रसंग) भी किया गया। अन्ततः आततायियों के षड्यंत्र के शिकार होकर उन्होंने अपनी जीवन लीला को समाप्त भी कर दिया, किन्तु अपने धर्म, सत्य और न्याय के पथ से कभी विचलित नहीं हुआ। सचमुच उन्होंने भर्तृहरि के उक्त श्लोक कथित आदर्श को अपने जीवन का आदर्श बना लिया था।
    एक अन्य नीति श्लोक ने उन्हें प्रभावित किया वह था महाभारतान्तर्गत उद्योगपर्व की विदुर कथित उक्ति। अपने छोटे भाई नीतिमान विदुर हो जब अग्रज धृतराष्ट्र ने बुलाया और अपनी सम्मति देने को कहा, इसे महाभारतकार ने विस्तार से उद्योग पर्व में लिखा है। यहां विदुर कहते हैं-
    बहवः पुरूषा राजन् सतंत् प्रियवादिनः।
    अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्त्रोत च दुर्लभः। महाभारत-उद्योगपर्व अध्याय
हे राजन ऐेसे पुरूष बहुत होते हैं जो प्रियवादी होते है। अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए अतिश्योक्ति करने से भी नहीं चूकते कभी कभी मालिक को खुश करने के लिए उन्हे झूठ बोलने से भी परहेज नहीं होता। परन्तु ऐसे वक्ता और उनके श्रोतो दुर्लभ ही है। जो उस कटुसत्य को कहने में संकोच नहीे करते जो सुनने वाले के लिए हितकारी होता है, भले ही उसमें अप्रियता झलकती हो। खुद स्वामी दयानन्द अपने जीवन में इसी आदर्श को अपने सामने रखा। उन्होंने सत्य, न्याय, और धर्म के आगे रख कर हर बाते कहीं। कहीं भी सामने वाले को चाहे वह कितना ही बड़ा शक्तिशाली सामन्त ही क्यों न हो, खुशामद भरी बात नहीं की और मुंहदेखी बात की। उनका साक्षात्कार इस युग के राजा महाराजाओं उच्च प्रशासनिक अधिकारियों तथा सामान्य जनों से होता था, परन्तु उन्होंने कभी लाग लपेट बातें नहीं की। नीतिकार ने यह तो कहा है कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो। एक कदम आगे रख कर दयानन्द ने कहा अप्रिय सत्य कहने भी कभी संकोच मत करो। वे सबसे यह अपेक्षा रखते थे कि वे विदुर की इस उक्ति को अपने जीवन का आदर्श बनाये।


सौजन्य शान्तिधर्मी मासिक पत्रिका

डॉ0 भवानीलाल भारतीय
3/15 शंकर कालोनी, श्रीगंगानगर

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